Monday, October 15, 2012

मुक्तक.......




 मैं अपना हूँ तुम्हारा हूँ ,या फिर कोई पराया हूँ
मुझे आकर ये समझा दो ,कि हूँ आखिर तो मैं क्या हूँ
तुम वो धूप हो हमदम , मुझे जिसकी जरुरत है
तुम्हे जो चाहिए हर पल ,मैं वो शीतल सी छाया हूँII

कवि दीपेंद्र

सारी जलती हुयीं शमाएं......




नवरंगो को खुद में समेटे, अंधियारों की ओट लपेटे,
सारी जलती हुयीं शमाएं,बुझने को लालायित क्यूं हैं?

बिना कंठ के गूंगे स्वर हैं,
या स्वरों बिना बेकार गला है?
शब्द का बोझ हैं अर्थ उठाए,
या अर्थ को ढोने शब्द चला है?
इन व्यर्थ प्रश्नों के व्यर्थ से उत्तर -
इतने ज्यादा संभावित क्यूं हैं?
सारी जलती हुयीं शमाएं, बुझने को लालायित क्यूं हैं?

भाव बिना किसी कवि का परिचय,
क्या कविता का उपहास नहीं है?
और बिना कवि के कविता यूं है,
ज्यों अधर तो हैं पर प्यास नहीं है
ये कवि उठाए भार काव्य का-
इतने ज्यादा मायावित क्यूं हैं?
सारी जलती हुयीं शमाएं, बुझने को लालायित क्यूं हैं?

नजर मिली जब नजरों से तो,
दिल का भाव कलश भर बैठा ,
अधरों का शब्दकोष था खाली,
कैसे मन कि इच्छाएं कहता!
माना कि प्रीत में पावनता है-
पर इतनी ज्यादा मर्यादित क्यूं है?
सारी जलती हुयीं शमाएं, बुझने को लालायित क्यूं हैं?

रोम-रोम में ख़ुशी समाई,
अंतर -अंतर पुलकित है,
गर पीडा की इज्जत है,
और सारे दुख वन्दित हैं!
माना कि सपने थोक भाव हैं-
पर सारे आयातित क्यूं हैं?
सारी जलती हुयीं शमाएं ,बुझने को लालायित क्यूं हैं


कवि  दीपेंद्र