Sunday, February 21, 2010

एक गीत शाश्वत...


मैं तुम्हें पलकों में बंद कर इसलिए,
हौले से नींद के अंक में सो गया ! 
कि तुमसे  बिछुरन की  ये शंकाएँ कहीं
सच हुईं  तो ...
जीते  जी ये कवि  व्यर्थ  हो जायेगा ......


मेरे हर गीत का आदि तुम अंत तुम,
मेरे हर ग्रन्थ का भाव पर्यंत तुम,
तुम ही होंठो पे आयी तो धुन  बन गयी ,
तुम ही मन में समाई तो गुन बन गयी ,

इस अहल्या को तुम  राम सा दो  दरस ,  
वर्ना तो श्राप ये अनर्थ हो जायेगा.....

जीते  जी ये कवि  व्यर्थ  हो जायेगा ......


सांझ को क्यूं  सवेरा  भला  याद हो ,
गुल को क्यूं खार का कोई आस्वाद हो ,
धरती की नभ से क्यूं कोई कोई भी प्रीत हो ,
क्यूं पराजय को याद कोई भी जीत हो ,

किन्तु तुमने हमें याद गर रख लिया
तो जन्म का अपने भी अर्थ  हो जायेगा....  

जीते  जी ये कवि  व्यर्थ  हो जायेगा ......

कवि दीपेन्द्र