
जिसकी दीवारों से खुशबु प्यार की आती न हो
जिसमे बहती हुयी हवा कुछ याद दिलाती न हो
जिसकी हर एक ईंट से बचपन की याद ना हो जुडी
तू ही बता ऐ मेरे दिल मैं उसको घर कैसे कहूं ?
जो पिता की भांति ना उंगली पकड़ चला सके
एक प्रेमिका की भांति ना जो केशों को सहला सके
जिसकी छत माँ की तरह आँचल को फैलाती ना हो
तू ही बता ऐ मेरे दिल मैं उसको घर कैसे कहूं ?
जिसकी दीवारों का रंग ना आँखों को सुकून दे
जिसका दरवाजा ना पूरे घर का ही मजमून दे
अरे जिसकी छत पे बैठ चिडिया सुबह-ओ-शाम गाती ना हो
तू ही बता ऐ मेरे दिल मैं उसको घर कैसे कहूं ?
कवि दीपेन्द्र